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बुधवार, 20 मार्च 2013

हास्य कविता--आधुनिक बैण्ड

काल्हि छलौँ सुतल मचान पर ,
तखने किछु बड्ड जोर सँ बाजलै ,
लड़खड़ा क' खसलौँ दलान पर ,
झट पुछलौँ बड़का बेटा सँ ,
कहलक भुटकुनमा के विआह छै .
ओही ठाम बैण्ड बाजए छै ,
बैण्ड ! आश्चर्य सँ खुजल रही गेल आँखि ,
बैण्ड एहन होई छै .
हमरा जमाना मे होइ छलै एकटा ठेला .
मधुरगर शहनाई के स्वर ,
ढोलक थाप .
झाइलक झंकार ,
आ गीक गाबैत गबैया ,
मुदा आब ,
चारि चकिया धुआँ उड़ाबैत ट्रक ,
ताही पर 10-20 टा ध्वनी विस्तारक यंत्र ,
तेज धुन ,
अश्लिल बोल ,
दारू पि नाचैत छौड़ा छौड़ी ,
ई पहचान अछि आधुनिक बैण्ड कए ,
फाटी जाइ ककरो कानक पर्दा ,
पैड़ जाइ दिल के दौड़ा ,
भ जाइ ब्रेन हैमरेज ,
त कोनो जुलुम नइ ,
ई बैण्डक धुन सुनि क'
खुशी वा डर सँ जानवरो नाच लागै छै
सच मे जमाना बदलि गेलै यै , . . । ।

{जौँ किनको दिल के ठेस पहुँत त' हम क्षमा चाहब}
अमित मिश्र

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