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बुधवार, 20 मार्च 2013

जी चाहता है. . .

क्या तरासा है तुझे अल्लाह शहंशाह ने
इस कारीगरी को सलाम करने को जी चाहता है
किस ख्वाव में डूबी हुई हो मल्लिका
तुझे ख्वाव से जगाने को जी चाहता है
डाले हो हुश्न पे शर्मो-हया का पर्दा
यह पर्दा हटाने को जी चाहता है

क्या खुबसुरती पाई है तुमने सनम
इस खुबसुरत चमन पे छा जाने को जी चाहता है
तेरे चेहरे की तारीफ करूँ पर कम है
नीली आँखों में उतर आने को जी चाहता है

तेरे होठ क्या हैं, पंखुरी गुलाब का
इस गुलाबी कमल को चुमने को जी चाहता है
मदहोश बनाती हवाओं में फेली तेरी खुशबू के बीच
तेरी बाहों मे कैद हो जाने जी चाहता है

जब लेती हो अंगराई नीन्द में तुम ,तो सच मानो
नादान जान निकल आने को जी चाहता है
जब जवानी का जाम लिए जाती हो आइने के निकट
तो बेजान आइने को भी मुस्कुराने को जी चाहता है

कुछ तो रहम करो वरना बेमौत मारे जाएगें हम
तेरी हर इक अदा पे मिट जाने को जी चाहता है
किस तरह रात गुजर गई पता न चाला
दो-चार पंक्ति और लिख जाने को जी चाहता है

सुवह होने वाली है कोई जाग न जाए
इसलिए अब अलविदा कह जाने को जी चाहता है

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