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रविवार, 5 जुलाई 2015

देह

लघुकथा - 186
देह

लालबाबूकेँ देख कऽ आबि रहल छी ।बुझू तऽ अंतिमे दर्शन छल ।आब बचबाक कोनो चान्स नै छै ।बड पैघ हैमरेज भेल छै ।एकटा आँखि बाहर भऽ गेल छै ।देखिते मोन हौरऽ लागल तेँ हाॅस्पिटलसँ चलि एलियै ।आबिते कनियाँ गहूँम पिसेबाक लेल कहि देलनि ।हमर मोन कोनादन कऽ रहल छल ।देहमे शक्ति नै बुझना जाइत छल ।हम दबले अबाजमे कहलियनि, " हे यै, आइ हमरासँ गहूँमक बोरा नै उठाएल हएत ।आइ छोड़ू ।साँझमे भाते बना लेब ।"
ई सुनिते कनियाँ तामसे चिकरऽ लागली ," बुझल अछि ने जे हमरा सोहारिये नीक लगैत छै ।एते टा चकत्ता सन देह पोसने छी तखनो बोरा नै उठत !"
बुझू तऽ ई सुनिते हमर रोआँ भुलकि गेल ।लालबाबूक कल्हुका बलिष्ठ देह आ अझुका मरनासन्न देह देख अपन कनियाँक अज्ञानतापर आश्चर्य भऽ रहल छल ।आखिर देह कते दिन एक समान रूपसँ संग दै छै ?

अमित मिश्र

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