187. देखाबा
कपड़ा-लत्तासँ तँ बड नीक घरक लागि रहल छल ।पैरमे कने पुराने सही मुदा जुत्ता छलै तकर बादो ओकर काज देख सोचमे पड़ि गेल रही ।अप-टू-डेट भिखारी पहिल बेर देखने रहियै ।ओ पचास-पचपन वर्षक छल ।टीसनपर सवारी लग जाइ, कने काल किछु बतियाबै, किछु बक-झक होइ आ तकर बाद ओ पैर पकड़ि लै ।आजिज कऽ लोक किछु पाइ दऽ कऽ ओकरासँ पिंड छोड़बै ।घुमैत-घुमैत ओ हमरो लग आएल ।हम पुछलियै," एँ यौ, अहाँ तऽ नीक घरक लागि रहल छी, तखन भीख किए माँगै छी ?"
ओ कहलक,"बाबू, ई सब देखाबा छै ।जँ फाटल-पुरान गेन्हाएल कपड़ा पहिरबै तऽ के हमरा अपना लगमे सटऽ देतै ।सब नाकपर रूमाल राखि भागि जेतै ।तेँ ई भाड़ापर आनि कऽ पहिरै छी ।आखिर लोकक लग जेबै तखने ने भीख भेटतै ?आब बिनु माँगने दै बला मनुखता कतऽ बचल छै ?"
हम निरूत्तर भऽ गेल रही ।
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