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रविवार, 17 मार्च 2013

"आब किछु नै लिखब


"आब किछु नै लिखब"

तखन धरि आब किछु नै लिखब
जखन धरि हमर रचनामे
कोनो गरीबक वा दुखितक
दुख दूर करैकेँ क्षमता नै भऽ जाए
जखन धरि पाथर करेजसँ निकलल आखर
कोनो भिखमंगाक देहपर कपड़ा आ
पेटमे दू टा दाना(ऐँठे सही) नै दऽ सकत
तखन धरि हम नै लिखब
किन्नौँह नै लिखब
किएतँ हमरा इयाद अछि ओ कारी साँझ
जहिया देखने छलौँह
बीच बजार लूटैत नारिक इज्जत
आ फेर दोसर दिन हेंजक हेंज कवि
अपन कलमसँ शब्द उगलि कऽ
ओहि घटनापर छंद रचि रचि
नाउ कमा रहल छलाह
मुदा घटनाक बेर
कोनो कविक हाथ नै उठलै
ओकर इज्जत बचेबाक लेल
जँ एहने कवि बनि हमहूँ रहब
तँ धिक्कार अछि हमर जीवनपर
तेँ हम किछु नै लिखब
ओना करेजक भाव रूकै नै छै
अनवरत अष्टयाम जकाँ
सदिखन बहराइ छै कागतपर
सागरक ढ़ेह जकाँ दिमागक नसपर चोट करै छै
मुदा हम तखनो नै लिख सकै छी
कारण हमर देहक खून
भाफ बनि सूखि गेल अछि
भाव एहि स्वार्थी समाजकेँ देख पतनुकान देने अछि
आ कलमक आगि मिझा कऽ चिरनिद्रामे सुतल अछि
तेँ हम किछु नै लिखब
किन्नौँह नै लिखब

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