बतहा संसार
भोरसँ साँझ धरि
साँझसँ भोर धरि
असलमे भोरसँ भोर धरि
भटकैत रहैत अछि लोक
एकटा सुख्खल रोटीक लेल
दौड़ैत रहैत अछि ओ
अपनासँ पैघ लोक आगू-पाछू
ठिठियाइत अछि ओ पैघ लोक
सड़ल, गेन्हाएल आम जकाँ
फेक दैत अछि नचा कऽ
बहुते दूर छोट लोककेँ
पैघक घुसखोर चमचा जकाँ
ओहि सड़ल आममे
सटैत अछि चुट्टी, भौंरा, बिढ़नी
चूसि लैत अछि मिठास
मने इज्जत, टाका आ खूनकेँ
आब बचैत अछि
कानैत थाकल लोक सन आँठी
ओ आँठी फेर बढ़ैत अछि
गाछ बनि, आम बनि
फेरसँ आँठिये शेष बचैत अछि
छोट सदिखन पैघ लऽग जाइत अछि
आ बचैत अछि छोटोसँ छोट बनि
आखिर एते किए बौआइत अछि,
हकमैत अछि बतहा संसार ?
अमित मिश्र
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल रविवार (18-08-2013) को "नाग ने आदमी को डसा" (रविवासरीय चर्चा-अंकः1341) पर भी होगा!
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'