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मंगलवार, 3 जून 2014

बुढ़ारीमे

182. बुढ़ारीमे

पाँच वर्षक पोता दिस मुँह केने बुढ़ी बजै छथि "हे कहि दहीं, आब हमर बुत्ते भानस-भात नै हेतै ।अपन भानस अपने बना लौ ।"
बुढ़ीक तमतमायल मुँह देख बुढ़ा किछु नै बाजलनि ।कोनो प्रतिक्रिया नै देखि बुढ़ि पुन: जोरसँ सुनेलनि " अनठेने काज नै चलतै ।हम ककरो नोकर-तोकर नै ने छीयै ।भरि दिन गाम-समाजमे घुसियाएल रहतै ।जारन-काठी, कुटाउन-पिसाउनकेँ छोड़ने रहतै तँ के मौगी काज कऽ देतै ।कहि दहीं, आब नै निमहतै ।"
बुढ़ा सिरसिराएल बाजल " एते पैघ जीवन निमहि गेलै । किछु दिन शेष छै, इहो निमहिये जेतै ।ई बुढ़ारीमे झगड़ा केने कोन फायदा !"
एक दोसरपर आरोप-प्रत्यारोप चलऽ लागल ।अन्तमे बुढ़ी कानऽ लागली "हँ, हम किए अढ़ाएब अहाँकेँ !एते दिन प्रेममे बीति गेल आब बूढ़मे झगड़ब ।हमरा तँ कोनो दिक्कते नै रहितय, एखन जँ बेटा जीबैत रहितय तँ . . ." बुढ़ीक सिसकी बढ़ि गेलै ।बुढ़ोक आँखि नोरा गेलै ।पाँच बर्षक बेटा दुनूकेँ एकटक ताकि रहल छल ।ओ किछु बुझि सकै बला छल कहाँ !

अमित मिश्र

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