157. छागर
एकटा गाय आ एकटा पाठी एक्कै खुट्टापर बान्हल छलै ।पाठीकेँ नहाएल जा रहल छलै ।ई देखि गाय पुछलकै "भाइ ई की भऽ रहल छै ?"
पाठी कहलकै "हमर दीर्घ यात्राक ओरियान भऽ रहल छै ।"
"अच्छए भाइ एक बात बता, एते दिन लोक तोरा खस्सी आ पाठी कहै छलौ मुदा आइ तोहर नव नाम सूनि रहल छियौ 'छागर'...से किए ?"
"नै बुझलहीं बहिन, एते दिन धरि मनुखक नामे कटि कऽ मनुखक पेट भरै छलियै आ आइ मनुख देवताक बहन्ना बना कऽ काटत तेँ ई विशेष नाम देल गेल छै...बहिन,एक टा बात बड सतबै छै ...भगवतीक चरणमे मरनाइ तँ पुण्येक गप भेलै मुदा हमरा अपन भोजन बनबै लेल देवी कहाँ आबै छथिन्ह...हमरा तँ सब दिन जकाँ मनुखे खाइत छै तखन एते ताम-झामक कोन प्रयोजन ?"छागरक दुनू नैनसँ गंगा-यमुना बहऽ लागल छलै ।ओ अपनाकेँ सम्हारैत आगू बाजल "बहिन, राक्षस तँ पापी छल तेँ ओकर संहार कऽ भक्षण कएल गेल...मुदा हम ककरा कोन कष्ट देलियै जे हमरा राक्षसे जकाँ काटल जाइत अछि ।बहित एकटा बात सन्तोष दैत अछि जे देवीक नजरिमे सब बराबर छै ।आइ जे हमर प्राण लेत काल्हि ओकरा देवी नै छोड़थिन... ।"छागर बाजिते छल तखने ओकर मालीक ओकर डोरी पकड़ि बलि-वेदी दिस चलि देलक ।
अमित मिश्र
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