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गुरुवार, 19 मई 2016

समाजक सोच

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समाजक सोच

राति लगभग बारह होइत हेतै ।गर्मीसँ लोकक हालत पस्त भेल छलै कि टोलक पुबरिया भागसँ हल्ला उठलै ।कोनो अनहोनीसँ छाती धकधक क' रहल छल ।बातो तेहने छलै ।रमरेखबाकेँ अधसर डसि लेने छलै ।ओ छटपटा रहल छल ।जुआएल अधसर कानेमे अपन दाँत गड़ेने छलै ।ओकर हालत देख हम झटपट डॉक्टर लग ल' चलबाक लेल जोर केलहुँ ।हमर एहि बातक टोलक बुढ़ सब विरोध केलनि ।आनन-फाननमे भगतकेँ बजाओल गेल ।विषहरि थानमे रमरेखबाके सुता देल गेल आ आनधुन चाटी चल' लागल ।रेमरेखबा चिचियाइत रहल जे हमरा जल्दी सुइया दियाब'....डॉक्टर लग ल' चल' मुदा ओकर बात सुनै बला के छलै !मनरिया सब झुमैर गआबैत रहल आ भोर धरि रमरेखबाक गोर देह नील वर्णक भ' गेल ।चाटी चलिते रहल आ ओ चेतनाशून्य भ' गेल छल ।हमर आँखिसँ नोर बहि रहल छल आ मोन पड़ि रहल छल ओकरे कहल बात - भाइ, भले लोक चान धरि पहुँचि गेलै मुदा समाजक सोच बदलैमे एखनो सैकड़ो बर्ष लागतै ।

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