बाल कविता-245
ई अंबर चाही
नै पिज्जा नै बर्गर चाही
नै कुरकुरे कड़गर चाही
हम माँगै छी एतबे बौआ
उड़ै लेल ई अंबर चाही
नै सोनाक पिंजरा चाही
नै टिकड़ी नै टिकड़ा चाही
अपने हाथक तोड़ल बौआ
नीमक फर तीतगर चाही
नै मिर्ची नै अमरूद चाही
नै सिनेह ई अदभुद् चाही
सुस्ताइ लेल हमरा बौआ
गाछक ठाँढ़ि सुन्दर चाही
नै मैदा नै चिन्नी चाही
नाम हमर नै गिन्नी चाही
रही भुखलो तैयो बौआ
हमरा धरती नम्हर चाही
उड़ा दिअ पिंजरासँ हमरा
रहब संगे ओगड़ब दुअरा
नै भागब हम कतौ बौआ
एगो मीत पियरगर चाही
अमित मिश्र
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-06-2016) को "चुनना नहीं आता" (चर्चा अंक-2371) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उडै लैल ई अंबर चाही। यही तो है पंछी की चाह। बहुत प्यारी कविता।
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