प्रिय पाहुन, नव अंशु मे अपनेक हार्दिक स्वागत अछि ।

गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

मैं बहुत डर जाता हूँ

मै बहुत डर जाता हूँ जानम
जब-जब शाम ढलने लगता है
जब होता है जन्म अन्धेरे का
और तुम विराने में तन्हा छोड़ कर
अपने घर को चले जाते हो
डर का घर रहता है दिल के एक कोने में
हो-न-हो फिर सुवह आये ही न
या निगल जाये अंधेरा तुम्हारे मुस्कान
और मैं इन्तजार में तड़पता रहूँ
तन्हा रात में, तन्हा हीं मर जाऊँ
जमाने के चलते गम का घूँट पी लूँ
और जमाने को पता हीं न चले
एक सच्चे आशिक के कुर्बानी का
सच में
मै बहुत डर जाता हूँ

अमित मिश्र

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें