बाल कविता-254
चन्ना बनि क' चोर
साँझेसँ ओ संगे छलथि
कखन पड़ेलथि बनि क' चोर
और बतियबितौं हम चन्नासँ
कत' गेलाह ओ भोरे भोर
गर्मीसँ भरि दिन व्याकुल हम
पंखा लग पेटकुनियाँ देने
सूरजकेँ ओ मारि भगा क'
आएल छलथि ओ ठंढी लेने
देखिते माँगलहुँ दूध आ भात
पहिने हुनका लागि क गोर
फेरो एलै ललकी सूरज
अपन गर्मी संगे लेने
ताकत एकर भेलै दुगुन्ना
एहि ठाँसँ चन्नाकेँ गेने
किओ बजाबह मामाकेँ फेर
चल' देताह नै एकर जोर
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