बाल कविता-261
हमर मम्मी
भोरे उठै देरसँ सूतै कनिको नै अलसाबै छै
हमर मम्मी हमरा खातिर बहुते कष्ट उठाबै छै
बर्तन-बासन चौका-पीढ़ी भोजन-साजन बनबै छै
कतबो थाकल होइ मुदा कहियो किछु नै सुनबै छै
हमरा हँसेत देख क' उहो हॉलेसँ मुस्काबै छै
अपने अक्षर जानै नै छै हमरा स्कूल पठबै छै
छै निरक्षर बुझह' नै दै जखन हमरा पढ़बै छै
अपने हाथे बस्ता आरो लंच हमर सरियाबै छै
जे किछ माँगी पूरा क' दै, कहियो नै ओ टारै छै
केहनो खौंझल मोन ओकर, हमरा नै दबारै छै
कनिको माँथ गरम होइ हमर ठंढा तेल लगाबै छै
जखन हेबै नम्हर आरो बनबै बड़का अफसर हम
नै देबै तखन त' कहियो दुख उठबैक अवसर हम
बना क' रानी हम खुएबै हमरा जेना खुआबै छै
अमित मिश्र
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-05-2017) को
जवाब देंहटाएंसरहद पर भारी पड़े, महबूबा का प्यार; चर्चामंच 2626
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहु सुन्दर बाल रचना ... और फिर अपनी मम्मी तो ऐसी ही होती है ...
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