यादें आ कर
तड़पाते हैं अब
काँटों के दिन
भूखे के घर
दिवाली नहीं होती
काली रात को
दिल के जख्म
दिखाये नहीं जाते
चौराहे पर
पंक्षी के पर
कतर दिये जाते
राजनीति में
हँसते नहीं
हँसाते हैं हम तो
जोकर बन
पीली सरसो
खेतों के संग होली
खेल रही है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें