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सोमवार, 15 दिसंबर 2014

गजल- अही कलम अहीँ कागज

गजल-1.51

अहीँ कलम अहीँ कगज हमर गजल छी अहीँ
अहीँ मिजाज हमर भावमे बसल छी अहीँ

धसय धरा खसय गगन कतौ वा अन्हर उठय
हियाक घरक बीच लोह बनि गचल छी अहीँ

 चलय बसात सगर गाममे गमक बोरि तेँ
कहय गुलाब सब परागमे रमल छी अहीँ

उठैत अछि हमर कलम मुदा लिखा नै रहल
सबसँ सुनर सबसँ अलग निशा चढ़ल छी अहीँ

जरैत तेल अछि मुदा जरा कऽ बाती "अमित"
उठय दरद तँ लगय चोट सहि चुकल छी अहीँ

1212-1212-1212-212

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